सरहदें लांघती ज़िन्दगी : रोहिंग्या

         इस आधुनिक युग में भी कोई बस्ती ढूँढ़ना इतना मुश्किल होगा इसका हमें तब एहसास हुआ जब बर्मा से आये हुए मुसलमानों की बस्ती ढूँढ़ने हम लोग जामिया से निकल कर शाहीन बाग़ पहुँचे और वहाँ से एक किलोमीटर चल कर किसी वक़्त के खाली पड़े मैदान में बसी बस्ती में पहुँचे।इस सब में हमें तकरीबन दो घंटे लग गए। 
          बस्ती शुरू होने से पहले ही छोटी छोटी दुकानें मिली| हम बस्ती की तरफ बढे तो किसी ने बताया कि यहाँ सिर्फ बर्मी लोग ही नहीं रहते हैं| पूछने पर पता चला कि इस बस्ती में भारत के पूर्वी राज्यों से आए हुए लोग भी रहते हैं| बस्ती में घुसते ही हमें जहाँ-तहां कचरे के ढेर से निकाली हुई प्लास्टिक के कबाड़ के ढेर दिखाई दिए| आगे बढ़े तो रास्ते के दोनों ओर झुग्गियों की कतारें थीं| एकदम अस्त-व्यस्त झुग्गियां जिनको देखने से लगता ही न था कि उनमे मनुष्य भी विचर सकते हैं| एक दो नुक्कड़ पर छोटी-छोटी दुकाने थीं जिन पर बच्चों के खाने के फनपोप्स, चिप्स आदि चीज़ों के पैकेट की लड़ियाँ लटक रही थीं| जीवन अपने साथ अनेक आशाएं लेकर आता है| यह लड़ियाँ उन्हीं आशाओं का प्रतीक थीं| हमने तकरीबन 50 झुग्गियों को पार कर लिया था| फिर भी हमें बर्मी मुसलमानों की बस्तियां नहीं मिली थीं| चरों तरफ एक अजीब सा वातावरण था| एक वीराने से इलाके में भारत के अलग-अलग राज्यों से आये हुए लोगों ने बस्ती बसाई हुई थी| ये लोग यहाँ नारकीय जीवन जीने को मजबूर हैं| कुछ कुछ जगहों पर हमने हैंडपंप देखे| दिल्ली में हैंडपंपों पर लाल रंग कर दिया जाता है| इन हैंडपंपों पर भी सरकर ने लाल रंग किया हुआ है| इसका मतलब यह है कि इन नलों का पानी पीने योग्य नहीं है| फिर भी ये सभी लोग इस पानी को पीने को मजबूर हैं| हम आगे चले तो हमें एक मस्जिद और एक मंदिर आमने सामने बने हए दिखयी दिए| मानो कह रहे हों कि जब हम नहीं लड़ रहे तो तुम क्यों लड़ते हो या शायद ग़रीब बस्ती में मंदिर और मस्जिद को अपने लिए जगह बनाने के लिए लड़ने की ज़रूरत नहीं पड़ती है| एक दुकान पर रूककर हमें फिर से पूछना पड़ा कि बर्मा मुस्लमान कितनी दूर रहते हैं| जिस तरह से भारतीय गावों के ढाँचे के अनुसार दलित लोग गाँव के बाहरी हिस्से में रहते हैं उसी प्रकार बर्मा से आए हुए ये मुसलमान इस बस्ती के एकदम अंत में रहते हैं| हम बस्ती के आखिरी रास्ते पर पहुँच चुके थे| इसके आगे एक मामूली सा दलदली इलाका था| कुछ झाड़-झंखाड़ भी थे| उसी दलदल से लग कर आदमी को कमर तक ढँक लेने वाली दो-चार लेट्रीने बनी हुई थीं| शायद बस्ती का सारा मलदान उसी जगह पर होता था| हमने देखा कि रास्ता बस्ती से ऊँचा था|
          “बस्ती रास्ते से कितनी नीचे है?”, मैंने अपने साथी से आश्चर्यचकित होकर पूछा| एकपरिवार के व्यस्क व्यक्ति को देखकर मैंने पूछा, “आप रोहिंग्या हैं क्या?”
          “नहीं”, उसने पलटकर जवाब दिया| आगे बताते हुए उसने कहा, “आप यहाँ से नीचे उतर जाओ तो उनके कुछ परिवार मिल जाएंगे|”
आप कहाँ से हैं?”, मैंने पूछा| 
हम असम से हैं|”
यहाँ कब और क्यूँ आना पड़ा?”
हम यहाँ 2012 में आए थे| कोकराझार के दंगों में जान बचाकर भाग आये थे|”
ओह! माफ़ करना|”, इतना कहकर हम आगे निकल गए|
हम रास्ते से नीचे उतरे तो हमने देखा कि रास्ता लगभग हमारे सर के ऊपर तक पहुँच गया था| मैं सोच में पड़ गया कि बरसात का पानी कहाँ जाता होगा?
एक आदमी को देखकर हम रुक गये क्या नाम है आपका?”, मैंने पुछा|
रफीक अहमद”, उसने बताया|
कहाँ से हैं आप?”, हमने पूछा
--हम लोग बर्मा से हैं|
--कब आये?
--2012 में|
--कौन-कौन आया था|
--मैं अकेला ही आया था|
--परिवार के बाकी लोग कहाँ हैं?
--शादी से पहले का परिवार नहीं पता कहाँ हैं| यहीं आकर शादी किया
यह बड़े आश्चर्य की बात है कि इन लोगों ने अपनी ज़रूरत के लायक हिंदी बोलनी सीख ली थी| जब हमने किसी और से भी बात करने का आग्रह किया तो उन्होंने हमें उनके आफिस जाने का सुझाव दिया| रफीक से पूछने पर उसने बताया कि बर्मा में मुसलमानों को मारा जा रहा है इसलिए वे यहाँ चले आये| हालाकिं उन्हें नहीं पता कि उन्हें सिर्फ इसलिए क्यूँ मारा जा रहा है कि वे मुसलमान हैं| उनके पढ़े लिखे लोगों तथा नेताओं को पहले ही ले जाकर गायब कर दिया जाता था| उनकी ओर से कोई नहीं है अब जो बोल सके| यह पूछने पर कि म्यामां नेता आंग सां सू की उनकी मदद कर रही है कि नहीं तो रफीक ने बताया कि सू की सेना की मददगार है और इस क़त्ले आम को रोकने के लिए कोई कदम नहीं उठा रही हैं| मार्च 2016 में म्यामन में लोकतान्त्रिक सर्कार गठित हुई तो सू ची ने सेना के साथ सत्ता को साझा करने की बात कही थी, जिसका अर्थ यह था की सुरक्षा से जुड़े सभी मंत्रालयों पर सेना का नियन्त्रण होगा, अर्थात म्यामा की सेना के जनरल गृह, सीमा और रक्षा मामलों से जुड़े मंत्रालयों की बागडोर सभालेंगे| इससे स्पष्ट है की म्यामां में सेना अप्रत्यक्ष रूप से सत्ता में भागीदार बनी हुई है|[i] हालांकि आंग सां सू की ने कहा कि सफाए का कोई अभियान नहीं चलाया गया है|[ii]
हम सब आगे बढ़े तो देखा कुछ बच्चे खेल रहे थे| हमने पूछा कि यहाँ किसके साथ आये हो तो उसने बताया कि वो अपनी माँ के साथ दो साल पहले लाया था| लेकिन उसको नहीं पता कि उसका बाप कहाँ है| एक माँ अपने शौहर के बिना, अपने बिन बाप के बच्चे को एक गैर मुल्क लेकर तभी आ सकती है जब सुहागन होने से जिंदा होना ज्यादा ज़रूरी हो जाये| हमने एक-दो झुग्गियों में झाँक कर देखा तो पता चला कि चार गुणा चार की झुग्गी है और उसी अँधेरी बदबूदार कोठरी में ये जीने मरने पर मजबूर हैं| इस बस्ती में रहने वाले भारतीयों और इन बर्मी लोगों में यही समानता है कि इन दोनों देशों के नागरिकों के पलायन का कारण नस्लीय हिंसा है| फर्क सिर्फ इतना है कि भारतीय मूल के लोगों ने अपने राज्यों की सरहदें लांघी हैं फिर भी अपने देश की ज़मीन पर है, अपनी मिट्टी के साथ जुड़े हुए हैं| उन्हें कोई गैर-मुल्की या शरणार्थी नहीं कहेगा| जबकि रोहिंग्या अपने देश और मिट्टी से दूर दो देशों की सरहदें लांघ कर आए हैं| हालाँकि उनकी इस देश में भी रहना दुश्वार है| हाल ही में सुप्रीम कोर्ट में गृह मंत्रालय में जारी हलफनामे पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा, “गैर कानूनी तरीके से भारत आये म्यामां के रोहिंग्या समुदाय के लोगों को वापस भेजने के मामले में सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपना पक्ष रख दिया है और अब इस मामले में अदालत के फैसले का इंतज़ार है|”[iii] 
यहाँ कोई किसी से आसानी से बात करने को तैयार नहीं हैं| सिवाय रफीक के हर किसी ने हमें कार्यालय की ओर जाने का इशारा कर दिया| आफिस या कार्यालय कहने से हमरे दिमाग में जो छवि बनती है वह टूटनी तय थी| हमने देखा कि जिसे ये लोग अपना कार्यालय कहते हैं वह सिर्फ बांस से बनायीं हुई एक और झोंपड़ी है जिसमे दो-चार स्टूडेंट चेयर और एक लकड़ी की मेज़ पड़ी थी| इस कार्यालय में हम मोहम्मद सिराजुल्लाह से मिले| सिराजुल्लाह एक 22-23 साल का पढ़ा-लिखा नौजवान है| औपचारिक परिचय के बाद मैंने पूछा, “आप यहाँ किसके साथ आये थे?” 
मैं अकेला ही आया था|”, सिराज ने बताया। 
सिराज से बात कर के पता चला कि जितने भी लोग यहाँ रह रहे हैं उन्हें पता ही नहीं है कि उनके परिवार के बाकी सदस्य कहाँ हैं और किस हालत में हैं| ज़्यादातर परिवार यहाँ वर्ष 2012 में बांग्लादेश की सरहद पार कर के भारत की सीमा में आये| यहाँ भी ये लोग बहुत अच्छी हालत में नहीं हैं| “यहां कोई आपकी तरह किसी से बात करने को तैयार क्यों नहीं है?”, मैंने अपनी जिज्ञासा सिराज के सामने राखी|
उसके बाद जो उसने मुझे बताया वो होश उडा देने वाला था, “हमारे दो अपंग साथियों को बहला फुसला कर उनकी फोटो लेकर अखबार में यह लिखकर छाप दी थी कि इन आतंकवादियों को भारत सरकार को तलाश है|” क्या हमारे बीच किसी भी पेशे में कोई भी नैतिकता बाकी बची हुई है? इस घटना के कौन किस पर भरोसा कर सकता है? जिस जगह ये अपनी जान बचने के लिए शरण ले रहे हैं अगर वहीँ पर इस तरह के षड्यंत्र रचे जाएंगे तो इससे बेहतर है कि ये लोग अपने देश में ही मारे जायें| कम अज कम परायी धरती पर मरने का बोझ तो सीने पर लेकर नहीं मरना पड़ेगा|
आप लोगों को यहाँ कोई तकलीफ तो नहीं हैं? कोई आपको यहाँ तंग तो नहीं करता है?”, मैंने जानना चाहा|
नहीं, हम यहाँ रहने का किराया देते हैं| बिजली का बिल भी देते हैं|”, सिराजुल्लाह ने जवाब दिया|
किराया?”, मैंने हैरत से पूछा, “किसको देते हो किराया?”
ज़मीन के मालिक को”, उसने जवाब दिया|
इस ज़मीन का भी कोई मालिक है? मैंने हैरत से मन में सोचा की बेकार पड़ी ज़मीन जिस पर कुछ पैदा नहीं किया जा सकता| ऐसी लोकेशन जहाँ कुछ बनाया जाये तो टिके भी न| उस ज़मीन का भी कोई मालिक हो सकता है और कोई इस हद तक मुनीम-दिमाग हो सकता है कि इन मजबूर आत्माओं से भी उगाही कर सकता है|
गुज़ारा करने के लिए ये लोग आस पास के इलाके में मजदूरी करते हैं| कुछ लोग ऑटो भी चला लेते हैं जिससे उनका कुछ खर्च चल जाता है|”, सिराज ने बताया| उसकी बात सुनकर लगा जैसे ज़िन्दगी जीने की ललक आदमी से किसी भी देश और अवस्था में काम करवा ही लेती है। 
राजनैतिक उथल-पुथल और भारत में रोहिन्ग्या मुसलमानों के डेरे पर गृह मंत्रालय के विचारों को साझा करते हुए हमने पूछा  “आपको भारत से क्या चाहिए?”
हमें कुछ नहीं चाहिएहम यहाँ किसी का हक लेने नहीं आये हैं| हम यहाँ तभी तक रहना चाहते हैं जब तक कि हमारे मुल्क में अमन नहीं कायम नहीं हो जाता है| जिस दिन मेरे मुल्क में अमन कायम हो जायेगा उस दिन मुझे दूसरा सेकंड नहीं लगेगा अपने मुल्क वापस लौटने का फैसला लेने के लिए|”, सिराज ने अपना पक्ष स्पष्ट किया|
उसने बताया कि यहाँ हर आदमी यही दुआ करता है कि जब वो मरे तो अपने वतन की मिट्टी में ही दफ़न किया जाए| इस दुनिया में बेवतन होने से बड़ी कोई सजा नहीं है| दूसरे मुल्क में आज़ाद फिज़ाएं भी परायी लगती हैं| हवाएं भी सलाखों सी चुभती हैं और अपने मुल्क लौटने की टीस जिंदा लोगों को भी मुर्दा बना देती हैं|
म्यांमार की सैन्य सरकार ने 1982 के नागरिकता कानून के अंतर्गत रोहिंग्या को अपने नागरिक माना ही नहीं| फिर इनके सारे नागरिक अधिकार छीन लिए गए| इन लोगों के शिक्षा हासिल करने, यात्रा करने, अपने धर्म का अनुसरण करने और स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ उठाने पर लगातार पाबंदी लगायी गयी है| इससे ये लोग बंधुआ मज़दूरों की भान्ति जीवन जीने को विवश हैं|[iv] इस विषय पर बात करते हुए सिराज ने कहा, “मैं यहाँ आकर समझा कि आज़ादी क्या चीज़ होती है| मैं अपने देश में भी इसी प्रकार से आज़ाद रहकर जीना चाहता हूँ|”
 अपने मुल्क वापस लौटने की आस लिए ये बर्मी मुसलमान भारत में शरणार्थियों का जीवन जी रहे हैं जबकि सिराज जैसे अनेक रोहिंग्या मुसलमान अपने मुल्क में बहुत बड़ी संपत्ति के मालिक हैं| परन्तु नागरिक अधिकार न होने के कारण और नस्लीय हिंसा ने उन्हें जानवरों जैसा जीवन व्यतीत करने पर मजबूर कर दिया है| जिस तरह सरहदें लांघकर कर शरीर और मन पर अनगिनत घाव लिए वे अपने मुल्क से भारत आये थे उसी तरह के घाव वे अपने पीढ़ियों को नहीं देना चाहते हैं| इसी प्रयास में रोहिंग्या मुसलमानों ने यहाँ अपना खुद का एक स्कूल खोला है जिसे गुंचानाम की एक गैर सरकारी संस्था चलाने में मदद करती है|
इस दुनिया में सभी को जीने का अधिकार है| यह अधिकार कोई किसी से छीन सकता है| इस अधिकार में बाधा डालने वाले न केवल किसी एक इन्सान के अपराधी होते हैं बल्कि समूची मानवता के अपराधी होते हैं| रोहिंग्या मुसलमानों के साथ होने वाला नरसंहार मानवता को शर्मसार करने वाली घटना है| ऐसी घटनाओं को मुंहतोड़ जवाब देने का एक ही रास्ता है और वो है इंसानियत के रास्ते पर चलकर ऐसे लाचार पीड़ितों को सहारा देना न कि क़ानूनी जुगाली करना| इंसानियत से बड़ा कोई धर्म नहीं इसलिए सब कुछ छोड़कर बची-खुची इंसानियत को बचाना हमारा परम कर्त्तव्य है|


सन्दर्भ


[i] अनीता वर्मा, अपने ही आँगन में पराए, जनसत्ता, नई दिल्ली, 13 सितम्बर 2017, प्रष्ठ संख्या 6
[ii] जनसत्ता ब्यूरो जनसत्ता, नई दिल्ली, 19 सितम्बर 2017, पृष्ठ संख्या 1 और 8
[iii] जनसत्ता ब्यूरो, जनसत्ता, नई दिल्ली, 19 सितम्बर 2017, पृष्ठ संख्या 1
[iv]अनीता वर्मा, अपने ही आँगन में पराए, जनसत्ता, नई दिल्ली, 13 सितम्बर 2017, पृष्ठ संख्या 6

विश्वास

धरती पर स्वर्ग इक ऐसा होगा
न कोई राजा न कोई रंक होगा

मानुष हों जहां भोले भाले
धन संचय को बैर न पालें

नीलाम जब न ज़िन्दगियाँ होंगी
न मंडी में खड़ी जवानी होगी

न दबेंगी सिसकियाँ खिलौनों की चाह में
सिक्कों की मोहताज न खुशियां होंगी

भूख से बच्चा न कोई रोता होगा
भीख के लिए न कोई बूढ़ा होगा

न होगी कोई खाई यहाँ जब
सबका सब कुछ अपना होगा

संसार नया जब गढ़ना होगा
सबको आगे बढ़ना होगा

लुका-छिपी

आज फिर कहीं बाज़ार सजा होगा 
तमन्नाओं का अम्बार लगा होगा 

कहीं तो कोई बेचता होगा खून रगों का 
और कहीं खरीदारों का हुजूम लगा होगा 

कहीं हसीं इश्क़ की महफ़िल होगी 
कहीं कीचड़ का व्यौपार सजा होगा 

गुमनाम हैं जो उसकी याद में 
कहीं ईमान का मज़ार सजा होगा 

सच की तलाश में भटकते हैं लोग 
झूठ की चकाचौंध में कहीं छिप गया होगा 

किसी ने बेची होंगी मजबूरियां अपनी 
किसी की खुशियों का सौदा हुआ होगा 

दीपावली के दीपों से जगमग जामिया

12 अक्टूबर 2017
Mohd. Aasif, जा. मि. इ.

जामिया मिल्लिया इस्लामिया के गुलिस्ताने ग़ालिब में दिनांक 12 अक्टूबर को शाम 4 बजे से  दीपावली के अवसर पर ग़ैर राजनैतिक संगठन युवा ने दीप प्रज्वलन का कार्यक्रम लेकर दीपावली समारोह का आयोजन किया। जामिया में पहली बार दीपावली के समारोह का आयोजन हुआ है। दीपावली के इस अवसर पर 'युवा' की कन्वेनर आकांक्षा राय कहती हैं, "दीपावली भारत का सबसे बड़ा त्योहार है। दीपावली दीयों का त्यौहार है इसलिए हमने दीप जलाकर दीपावली मनाने का फैसला लिया है।"

कार्यक्रम की कुछ झलकियाँ
दीपावली के मौके पर पटाखे की बिक्री और पटाखे चलाने पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत करते हुए आकांक्षा ने कहा, "युवा सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत करता है और जो लोग इस फैसले को किसी धर्म विशेष पर हमले के रूप में देखते हैं उन्हें जजमेन्ट को पूरी तरह से पढ़ना चाहिए। साथ ही उन्हें समझना चाहिए कि प्रदूषण से सभी को नुकसान पहुंचता है।" पटाखे जलाने के परिणामों पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा, "पिछले साल दीपावली के तुरंत बाद स्कूलों को कुछ दिनों के लिए बंद करना पड़ा था। प्रदूषण की समस्या को युवा पिढ़ी को ही बेहतर ढंग से समझना होगा और इसके निवारण पर काम करना होगा।" दीपावली के अवसर पर युवा का संदेश है कि त्यौहार को मिट्टी के दिए जलाकर ही मनाएं।

"दीया प्रकाश का प्रतीक होता है और प्रकाश सबके लिए होता है। प्रकाश धर्म नहीं देखता वो सबको रौशनी देता है और दीपावली रोशनी का त्यौहार है इसलिए इस दिन पटाख़े न चलायें। प्लास्टिक की लड़ियों की जगह मिट्टी के दीयों से अपने घरों को रोशन करें।", आकांक्षा ने अपील की। गौरतलब हो कि 10 अक्टूबर को जामिया में दीपावली के अवसर पर रंगोली बनाओ प्रतियोगिता का आयोजन किया गया था। कार्यक्रम के अंत में रंगोली प्रतियोगिता में विजयी टीमों के सदस्यों को पुरस्कृत किया गया। 

छात्र-छात्राओं ने एक-दूसरे को दीपावली की बधाई दी। सोशियोलॉजी, हिंदी, इंग्लिश, लॉ, इतिहास आदि विभागों में दीपक प्रज्वलित करके जामिया को रोशन किया। मिठाई का भी वितरण किया गया। कार्यक्रम की शुरुवात में एक सभा का आयोजन किया गया जिसमें धार्मिक सौहार्द पर चर्चा की गई। कार्यक्रम का संचालन संगठन के सदस्य जतिन जैन ने किया। कार्यक्रम में विभिन्न विभागों के छात्रों ने भाग लिया। इस मौके पर सोशियोलॉजी विभाग के तालिब अख्तर ने फ़िराक गोरखपुरी की 'नयी हुई रस्म पुरानी दिवाली के दीप जले' शीर्षक से ग़ज़ल कही।



Photo Credit: Shishir Agrawal, Mass Media Hindi, JMI

नज़र

हर जगह खून के धब्बे नज़र आते हैं 
यहाँ रक्षक भी मुझे भक्षक नज़र आते हैं 

ये खादी नहीं गरीबों का कफ़न है दोस्तों 
ये रहनुमाँ भी मुझे दुश्मन नज़र आते हैं 

कैसे आख़िर मुआफ़ करूँ इन्हें यारों 
ये काबिल मुझे क़ातिल नज़र आते हैं 

क्यों करूँ दुआ कैसे फ़रियाद 
ये देवता मुझे पत्थर नज़र आते हैं 

मुश्किल है यकीं करना क्योंकि  
ये भेड़ें मुझे भेड़िये नज़र आते हैं 

हिदायत

दीवार पर कुछ न लिखें, ये इबारत लिख दी
इस हिदायत ने उनकी उसे खराब कर दिया

कृपया शांति बनाए रखें, चीखकर बोले वो
कोशिश ने खामोशी को दरकिनार कर दिया

किसी से कहना नहीं, कुछ यूँ  फुसफुसाये
इसी बात ने हमें उनका हमराज़ कर दिया

वाह क्या बात है, क्या बात है, झूम उठे वो
इस वाहवाही ने फिर हमें  हैरान कर दिया

कैसे हैं आप? हमने यह सवाल कर लिया
खामोश रहे और  हमें खबरदार कर दिया

सच कह रहा हूँ, फिर से ज़ोर देकर बोले यूँ 
हमने भी हर फसाने पर ऐतबार कर लिया

और सुनाओ कुछ नया कहो, पूछते हैं वो
उनकी पूछताछ ने हमें शायराना कर दिया

उफ्फ! क्या करते हो? कुछ ढंग का किया करो
नसीहतों ने ही ज़माने की हमें नाकारा कर दिया

चलो चलें, कहीं बहुत दूर चलें, खयाल आया
ख्वाहिशों ने हमें थोड़ा मुसाफ़िराना कर दिया

स्थान

जिसकी  जो जगह उसको वहीं पे रहने दो 
आग को चूल्हों और चिराग़ों में ही रहने दो 

रोटियाँ सेंकने को तो तंदूर बहुत हैं 
घोंसलों को टहनियों ही पे रहने दो 

होती है ख़ाक हर शय जब जलती है 
ठंडा है आहन इसे ठंडा ही रहने दो 

ताड़ तिल का बनाना तो बड़ी बात नहीं 
किस्सा न बनाओ इसे मामूली ही रहने दो 

भूल चुका हूँ जिसे न दोहराओ वो बात 
मोहरा न बनाओ मुझे इंसां ही रहने दो 

ख़बर

एक शाम जेंडर स्वतंत्रता के नाम

जामिया मिल्लिया इस्लामिया में कवि सम्मलेन का आयोजन


21  सितम्बर 2017, जा. मि. इ.
मोहम्मद आसिफ 

जामिया मिल्लिया इस्लामिया के हिंदी विभाग और स्त्रीकाल पत्रिका के सामूहिक प्रयास से 19 सितम्बर, 2017 की शाम को एक कवि सम्मलेन का आयोजन संसथान के दायर-ए-मीर तौक़ी मीर ईमारत के मेरे अनीस हाल में किया गया। प्रख्यात कथाकार एवं कवि उदय प्रकाश  कार्यक्रम के मुख्य अतिथि थे। जेंडर स्वतंत्रता को लेकर साइकिल यात्रा पर निकले हुए स्त्री विमर्शकर्ता राकेश  कुमार सिंह विशिष्ट रूप से उपस्थित रहे। कार्यक्रम  की अध्यक्षता हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो. हेमलता महिश्वर ने की। कार्यक्रम की शुरुआत उदय प्रकाश की 'औरतें' शीर्षक कविता पर आधारित बनी लघु फिल्म के प्रदर्शन से हुई। इसके प्रोडूसर विकास डोगरा हैं  इसमें अदाकार इरफ़ान ने अपनी आवाज़ दी है। 

अध्यक्षीय भाषण देते हुए विभागाध्यक्ष प्रो. हेमलता महिश्वर ने नयी पीढ़ी के कवियों और कवयित्रिओं का प्रोत्साहन किया। उन्होंने कहा, "एक नयी फ़ौज तैयार हो रही है। जो इस पथ पर आगे चलेगी।" प्रो. महिश्वर ने अपनी कविता 'विद्रोह' का पाठ कर के अपनी बात समाप्त की।

कवि सम्मलेन में प्रतिष्ठित कवियों के साथ-साथ जामिया के उभरते हुए कवियों ने भी अपनी कवितायेँ प्रस्तुत कीं। जामिया के अलावा दिल्ली विश्वविद्यालय से संबद्धित अध्यापकों एवं छात्रों ने कविता पाठ किया। कवि एवं कवियित्रिओं ने अपनी कविताओं  के माध्यम से स्त्री-उत्पीड़न के सभी पहलुओं पर प्रकाश डाला जिनमे कन्या भ्रूण हत्या, बलात्कार, दहेज़ हत्या, बालिका यौन शोषण आदि प्रमुख थे। एक कवियित्री ने 'द वुमन' शीर्षक कविता का अंग्रेजी पाठ किया।
(बायीं से दायीं  ओर) मुख्य अतिथि उदय प्रकाश, अध्यक्ष प्रो. हेमलता महिश्वर एवं राकेश कुमार सिंह  
मुख्य अतिथि ने सम्मलेन को सम्बोधित करते हुए कहा, "मुझे खड़ी बोली के कवि अमीर खुसरो की कविताओं से आगे निकलकर आज के जेंडर यात्रा के युग में बहुत फर्क नज़र  आता है। खुसरो के आँगन की चिड़िया और गैया आज के युग में विद्रोही बन गयी है।" उन्होंने अपनी बात एक कविता से समाप्त की, "आदमी मरने के बाद कुछ नहीं बोलता, कुछ  नहीं सोचता। कुछ नहीं सोचने,  कुछ नहीं बोलने पर आदमी मर जाता है।"
राकेश कुमार सिंह ने अपनी यात्रा के अनुभव साझा करते हुए कहा, "मैं अपनी यात्रा में इसी प्रश्न का उत्तर ढूंढ़ रहा हूँ कि कौन है जिसने जेंडर की उत्पत्ति की और  इसे भेदभाव का कारण बना दिया। क्या कारण है कि इतनी सुरक्षा के बावजूद हमें 'बेटी बचाओ' का नारा देना पड़ता है। वो कौन हैं जिनसे हमें अपनी बेटियों को बचाना है।" 
कवि सम्मलेन में एक समय ऐसा भी आया जब कवियित्री नितिशा खालको की 'क्या सवाल और कलम भी कभी चुप होंगे' शीर्षक  कविता ने पूरे माहौल को भाव-विभोर कर दिया। सभी श्रोताओं ने उनका खड़े होकर ताली बजाते हुए अभिवादन किया। कार्यक्रम का संचालन स्त्रीकाल के अरुण कुमार ने किया। कार्यक्रम के समापन स्त्रीकाल के संजीव कुमार के धन्यवाद ज्ञापन के साथ हुआ।

स्वच्छता पखवाड़ा

जामिया मिल्लिया इस्लामिया ने दिया स्वच्छता का सन्देश 

विभिन्न प्रतियोगिताओं का किया गया आयोजन 


यूँ तो

यूँ तो अँधेरा पहले भी हुआ करता था 
पर उम्मीद की किरण फिर भी दिखा करती थी 

यूँ तो झगड़े पहले भी हुआ करते थे 
पर आपसी प्यार नहीं मारा करता था 

यूँ तो भूख पहले भी हुआ करती थी 
पर इंसान जानवर नहीं बना करता था 

यूँ तो मौतें पहले भी हुआ करती थीं 
पर ज़मीर नहीं मारा करता था 

पतझड़ पहले भी आया करता था 
पर सावन नहीं मारा करता था 

बसंत पहले भी रूठ जाया  करता था
पर कोयल की कूक नहीं मरा करती थी 

इमारतें पहले भी गिरा करती थीं 
पर आशियानें नहीं टूटा करते थे 

ख़बर

जामिया के हिंदी विभाग ने मनाया हिंदी दिवस

हिंदी के प्रोत्साहन के लिए किया गया प्रतियोगिताओं का आयोजन

ख़बर

जामिया मिल्लिया इस्लामिया में सत्रारम्भ कार्यक्रम संपन्न

हिंदी विभाग समिति ने किया नवागुन्तकों का स्वागत 

धारा

बह जाना चाहते हो,
तो बह जाओ 
पर ख्याल रहे
धारा  के साथ बहने वाले 
तुम अकेले न होओगे
असंख्य होंगे 
जो दिन रात
मशीन के पुर्जे की तरह 
खटते-खपते
जीवन शेष होने से पहले 
खुद शेष हो जाएंगे
सचेत नहीं रहे तो 
संभव है तुम भी 
भीड़ का हिस्सा बन जाओ 
भेड़ों में एक और गिनती बन जाओ 
अपनी विलक्षणता और सक्षमता 
के बावजूद तुम कहीं खो जाओ 
और फिर आगे-पीछे-मध्य 
का भेद गौण हो जाये
संघर्ष थम जाए
फिर कैसे सृजन करोगे 
धारा के  विपरीत न बहोगे 
तो 
संघर्ष कैसे करोगे 
क्योंकि 
संघर्ष नहीं तो 
सृजन भी नहीं 

टीम

तुमने कहा था 
तुम्हें सफर पर जाना था 
और तुम कश्ती लेकर 
निकल पड़े
अकेले  
लेकिन तुम भूल गए थे 
कि तुम समंदर में उतरे थे
और कश्तियाँ
समुद्र के थपेड़े सहने को न बनी थीं 
सागर में तो जहाज़ ही विचरते हैं,
तुम  भूल गए थे
कि
लम्बी दूरी  के लिए जहाज़ होता है
और जहाज़
कोई अकेला नहीं चला सकता
उसके लिए तो चाहिए
"एक टीम"

शिकायत

शिकायत मुझे भी है
आप से,
उन से,
खुद से,
शिकायत मुझे भी है

ये मायूस चेहरे और आलम-ए-रुसवाई
ये खौफनाफ मंज़र और दहशत-ए-तन्हाई
ये बेदिली और अजनबी माहौल,
जज़्बात-ए-इंसा हुए बेमोल,
इस माहौल से शिकायत मुझे भी है

बेबसी का पतझड़ और आंसुओं का सावन,
ये लाचार-बेआस-बेबस निगाहें,
बेआब मछली-सी तड़प और दर्दनाक आहें
इस दर्द की नाइत्तेफ़ाक़ी से,
शिकायत मुझे भी है

हालात हमारे एक से पर चेहरे एक-दूजे के तकते
राह नहीं मालूम, सहारा एक-दूसरे का खोजते
कभी मैं निराश तो कभी वह आस छोड़ता
इस आशा निराशा के खेल से
शिकायत मुझे भी है

ये नौजवानों की भटकन, ये मासूमों की धड़कन
ये बर्बाद जवानी, ये बेसहारा बुढ़ापा
वो उम्मीद की किरण, ये झूठे वादों का जाल
इस जालसाज़ी, फरेब से,
धर्म के आक़ाओं से,
देश के रहनुमाओं से,
शिकायत मुझे भी है
आप से,
उन से,
खुद से