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विध्वंस की राजनीति

हाल ही में महाराष्ट्र पेशवाओं और अंग्रेजों के बीच युद्ध की 200वीं सालगिरह के अवसर  पर दलित समुदाय और सवर्णों के बीच असहमति के चलते दंगा-फसाद हो गया। एक बहुसंप्रदाय समाज में हर सम्प्रदाय की अपनी मान्यताएं होती हैं। हर किसी को उन मान्यताओं के साथ जीवन जीने का अधिकार है। अक्सर एक सम्प्रदाय की मान्यता दूसरे के लिए आसानी से स्वीकार्य नही होती है। ऐसे अनेक उदाहरण हमारे समाज मे भरे पड़े हैं। परन्तु ऐसे ही समय पर हमें सहिष्णु होने की आवश्यकता है। यह ज़रुरी नहीं कि हर समुदाय के लोग एक ही प्रकार से विचार करें। 
गौरतलब है कि दलितों के साथ हुई भिड़ंत के कारण पिछले तीन दिनों से लगातार महाराष्ट्र में विरोध के चलते बंद का माहौल जारी है। खबरों के अनुसार 200 से अधिक बसों को जला दिया गया है। इसके अलावा निजी दोपहिया वाहनों को नष्ट कर दिया गया है। आगजनी और पथराव की भी खबरें आम हैं। इतना ही नहीं दंगे फसाद की यह आग एक राज्य से दूसरे राज्य तक पहुंच चुकी है। विरोध प्रदर्शन और नाराज़गी जताने का अधिकार एक लोकतांत्रिक देश की विशेषता को दर्शाता है। परन्तु विरोध के नाम पर सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाना और जबरन आम जनता के काम-धंधे में बाधा डालना किसी भी तरह से न तो तार्किक है और न ही संवैधानिक है। इससे केवल देश की जनता पर अतिरिक्त भार ही पड़ेगा। इसके अलावा 'जनांदोलन' की बदनामी होगी। इस देश ने कई गुस्से वाले परन्तु अहिंसात्मक आंदोलन देखे हैं जिसमे देश की जनता ने शांतिपूर्वक अपनी बात सत्ता पक्ष के समक्ष रखी है। दामिनी आंदोलन ऐसा ही एक उदाहरण है। जनांदोलनों का काम विध्वंस करना नहीं बल्कि सृजन करना होता है। इतिहास गवाह है कि बड़े-बड़े आंदोलनों का मक़सद देश में जागरुकता फैलाना रहा है न कि विध्वंसकारी राजनीति करके सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाना। देश की जनता को विध्वंसकारी राजनीति और राजनेताओं के निहित स्वार्थों को धता बताते हुए ऐसे छद्म आंदोलनों से खुद को अलग रखने की ज़रूरत है। अन्यथा आंदोलन विध्वंस का पर्यायवाची बन जायेगा।

ईव टीज़िंग और काशी विश्वविद्यालय

30 सितम्बर, 2017 

बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय पिछले सप्ताह से चर्चा का विषय बना हुआ है| गौरतलब है कि इस संसथान की छात्राओं ने अपनी ज़ोरदार आवाज़ को संसद तक पहुँचाने के लिए दिल्ली तक कूच कर दिया और यह जता दिया कि वे पीड़िताओं को दोषी ठहराना और अधिक बर्दाश्त नहीं करेंगी| जब भी कहीं उत्पीड़न की प्रक्रिया लम्बे समय तक चलती है तो आत्मरक्षा के रूप में उस दमन के विरोध की भावना भी पैदा होती है| यही काशी विश्वविद्यालय में भी हुआ है| बनारस का यह आन्दोलन दिल्ली विश्वविद्यालय के ‘पिंजरा तोड़’ आन्दोलन की याद ताज़ा कर देता है| जिसमें दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्राओं ने छेड़खानी के खिलाफ अपनी आवाज़ बुलंद की थी| यद्यपि महिलाओं एवं छात्राओं का मुखर होना इस बात को उजागर करता है कि अब वे अपने अधिकारों के लिए लड़ना और हासिल करना सीख गयी हैं परन्तु बी.एच.यू. प्रशासन और उपकुलपति महोदय के रुख रवैये से ऐसा कतई नहीं झलक रहा है कि उन्हें इस बात की ज़रा भी परवाह है कि छात्राएं आखिर त्यौहारों के मौसम में धरने पर बैठने पर क्यों मजबूर हुईं थीं?
यदि छेड़खानी करने वाले शोहदों की शिकायत करने पर पीड़ितों से यह पूछा जाये कि वे देर शाम तक बाहर क्या कर रही थीं और यह तर्क दिया जाए कि ‘आज़ादी और सुरक्षा’ साथ-साथ नहीं मिल सकती हैं तो इससे यही सिद्ध होता है कि शोहदों को छेड़खानी करने का दैवीय अधिकार प्राप्त है| फिर प्रशासन भी उसी कुंठित पितृसत्तात्मक मानसिकता के अनुयायी हो जाते हैं जिस कुंठित मानसिकता के साथ शहर के मनचले शोहदे लड़कियों पर अभद्र टिप्पणियाँ करते हैं| ऐसे में प्रशासन और उत्पीड़नकर्त्ता में सिर्फ वर्दी का ही फर्क बाकी रह जाता है| सुरक्षा और अनुशासन के नाम पर 1500 पुलिसकर्मियों ने जिस तरह से लड़कियों पर लाठियां भांजी हैं वह इस बात का धोतक है कि भले ही लड़कियां हिमालय और चाँद पर चली जाएँ पुरुषों का एक वर्ग हमेशा उन्हें अपने ‘पैरों की जूती’ ही समझता रहेगा और अपने ऊपर होने वाले अन्याय के खिलाफ जाने के इनामस्वरुप स्त्री वर्ग को पाबंदियाँ और चार दिवारी ही मिलेंगी|
‘ईव टीजिंग’ के मसले के समाधान की बात करें तो हमें समझना होगा कि इस समस्या को हम उसी नज़रिए से नहीं सुलझा सकते हैं जो इसका जनक है| इसलिए हमें अपने नज़रिए को बदलने की और छात्राओं की शिकायतों को गंभीरता से लेने की आवश्यकता है अन्यथा समस्या और भी जटिल होती जायगी|

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