भूतकाल से पत्राचार

प्रिय भूतकाल,

आशा करता हूँ कि तुम्हारी उम्र चाँद सितारों सी हो और तुम्हें उन्हीं के जैसा चमकने का सौभाग्य प्राप्त हो। यह बात और है कि इस कामना के पीछे मेरा निहित स्वार्थ मौजूद है। तुमने मुझे जीवन की अनेक स्मृतियाँ दी हैं। यह भी सत्य है कि तुम्हारी यात्रा जितनी ही लंबी होगी तुम मेरे लिये उतनी ही मात्रा में स्मृतियों का संयोजन करोगे। कहने की बात नही है पर जो कुछ भी तुम मुझे देते गए, हँसते-रोते, गाते-मुस्कुराते मैंने स्वीकार किया। तुमने मुझे बचपन दिया। बेफिक्री दी, दोस्त-यार दिए, सरल हृदय दिया और दी बड़े होने की चाहत। तुमने मुझे अलग-अलग रूपों में समय-समय पर छला है। मैंने जो भी माँगा वो तुमने समय निकल जाने के बाद दिया। बचपन में समय दिया पर समझ नही दी। जवानी में समझ दी पर समय नही दिया। जो दिया वो बचपन की यादें थीं और फिर से उस बचपन मे लौट जाने की नामुमकिन सी ख्वाहिश। तुम एक छलिया हो जिसने मुझे जीवन के हर पड़ाव की कीमत उसके अगले पड़ाव में समझाई। तुमने मुझे समझाने वाले तो दिए पर समझने वालों का अकाल रखा। शुभचिंतक और अहितकारियों की भीड़ में मेरे साथ धक्का-मुक्की हुई। कहीं किसी ने संभालने की कोशिश की तो मेरा अहंकार मेरे सामने आ गया और कहीं किसी ने लूटा तो मेरा भोलापन सामने आ गया। एक पश्चयताप ही था जो दोनों अवस्थाओं में एक ही तरह से प्रकट हुआ। जो कभी अकेला नही आया। अपने साथ लाया दुःख, अकेलापन, निराशा, दुराशा और अविश्वास। कहीं किसी को मैंने अपना समझा तो वो पराया निकला।

मुझे सुख की भी अनुभूति हुई परंतु यह मात्र उस मरीचिका के समान थी जैसी मरुस्थल में किसी प्यासे को होती है। जिसे मैं सुख समझता था वह मेरी इन्द्रियों की क्षणिक तृप्ति मात्र थी। मेरे अन्तर्मन में सदा एक बेकली रही। प्रेम एक ऐसा प्रसंग रहा जिसकी परिभाषा व्यक्ति,वस्तु, स्थान और काल के आधार पर लगातार बदलती रही। मेरे भूतकाल मैं तुमसे शिकायत नहीं कर रहा हूँ बल्कि यह बताने का प्रयास कर रहा हूँ कि तुम्हारी शिक्षाओं ने मुझे अनुभव दिया।  मैं तुमसे कहना चाहता हूँ कि मुझे आज भी मेरे और तुम्हारे बीच के इस रिश्ते का नामकरण करने का अवसर प्राप्त नही हुआ है। मैंने कभी इस बारे में अगर सोचा भी तो मैं कभी समझ नही पाया कि मैं इस रिश्ते को आखिर क्या नाम दूँ क्योंकि तुम और मैं जितना आगे बढ़ते गए हमारा फासला उतना ही बढ़ता चला गया। 

तुमने मुझे जवानी और जोश दिया। पहाड़ों को हिला देने का साहस और हवाओं का रुख बदलने की शक्ति भी दी। पर साथ में दिया अहंकार। अहंकार कि मुझसे बलशाली कोई नहीं। भ्रम दिया कि मैं जीवन भर सदैव उतना ही बलशाली रहूँगा जितना अपने यौवनकाल में था, कि जीवन अकेले भी जिया जा सकता है। तुमने मुझे बुद्धि दी और अनिष्टकारी संतुष्टि दी कि मुझसे बड़ा कोई विद्वान नहीं, कि जो कुछ मैं सोचता हूँ वही सही है। मैं गलत हो ही नही सकता। पर अफसोस मैं ही गलत था। काश इस सब के साथ तुमने मुझे समझाया होता कि सहयोग और धैर्य भी जीवन की नाव की पतवार होते हैं तो तूफानों से जूझना आसान होता। निर्माण करना आसान होता और जीवन के अंतिम पड़ाव पर मैं अकेला नही होता। मैं भूल गया था कि व्यक्ति भले ही कितना भी बलशाली हो वह एक दिन कमज़ोर हो ही जाता है। उसका अहंकार टूट जाता है। रह-रह कर हर वाक्य के पहले जो शब्द आता है वह 'काश' होता है। 'काश मैंने औरों की भी बात सुनी होती', 'काश, मैंने अपने गुस्से पर काबू पाया होता', 'मैंने जाना होता कि दूसरों के पास भी बुद्धि है' और 'काश, मुझे कभी काश न कहना पड़ता'।

मैं यह भी जनता हूँ कि मेरे जैसा मैं अकेला नहीं हूँ फिर भी मैं अकेला ही हूँ। मेरे जैसा मैं पहला नहीं हूँ लेकिन आखिरी भी नहीं हूँ।

तुम्हारा भुक्तभोगी

2 comments:

  1. It is really Good n Diffrent too. Every person who will read it wil relate with it.

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  2. भूतकाल से पत्राचार ऐसे भी हो सकता है बहुत उम्दा बहुत अच्छा 👍

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