सरहदें लांघती ज़िन्दगी : रोहिंग्या

         इस आधुनिक युग में भी कोई बस्ती ढूँढ़ना इतना मुश्किल होगा इसका हमें तब एहसास हुआ जब बर्मा से आये हुए मुसलमानों की बस्ती ढूँढ़ने हम लोग जामिया से निकल कर शाहीन बाग़ पहुँचे और वहाँ से एक किलोमीटर चल कर किसी वक़्त के खाली पड़े मैदान में बसी बस्ती में पहुँचे।इस सब में हमें तकरीबन दो घंटे लग गए। 
          बस्ती शुरू होने से पहले ही छोटी छोटी दुकानें मिली| हम बस्ती की तरफ बढे तो किसी ने बताया कि यहाँ सिर्फ बर्मी लोग ही नहीं रहते हैं| पूछने पर पता चला कि इस बस्ती में भारत के पूर्वी राज्यों से आए हुए लोग भी रहते हैं| बस्ती में घुसते ही हमें जहाँ-तहां कचरे के ढेर से निकाली हुई प्लास्टिक के कबाड़ के ढेर दिखाई दिए| आगे बढ़े तो रास्ते के दोनों ओर झुग्गियों की कतारें थीं| एकदम अस्त-व्यस्त झुग्गियां जिनको देखने से लगता ही न था कि उनमे मनुष्य भी विचर सकते हैं| एक दो नुक्कड़ पर छोटी-छोटी दुकाने थीं जिन पर बच्चों के खाने के फनपोप्स, चिप्स आदि चीज़ों के पैकेट की लड़ियाँ लटक रही थीं| जीवन अपने साथ अनेक आशाएं लेकर आता है| यह लड़ियाँ उन्हीं आशाओं का प्रतीक थीं| हमने तकरीबन 50 झुग्गियों को पार कर लिया था| फिर भी हमें बर्मी मुसलमानों की बस्तियां नहीं मिली थीं| चरों तरफ एक अजीब सा वातावरण था| एक वीराने से इलाके में भारत के अलग-अलग राज्यों से आये हुए लोगों ने बस्ती बसाई हुई थी| ये लोग यहाँ नारकीय जीवन जीने को मजबूर हैं| कुछ कुछ जगहों पर हमने हैंडपंप देखे| दिल्ली में हैंडपंपों पर लाल रंग कर दिया जाता है| इन हैंडपंपों पर भी सरकर ने लाल रंग किया हुआ है| इसका मतलब यह है कि इन नलों का पानी पीने योग्य नहीं है| फिर भी ये सभी लोग इस पानी को पीने को मजबूर हैं| हम आगे चले तो हमें एक मस्जिद और एक मंदिर आमने सामने बने हए दिखयी दिए| मानो कह रहे हों कि जब हम नहीं लड़ रहे तो तुम क्यों लड़ते हो या शायद ग़रीब बस्ती में मंदिर और मस्जिद को अपने लिए जगह बनाने के लिए लड़ने की ज़रूरत नहीं पड़ती है| एक दुकान पर रूककर हमें फिर से पूछना पड़ा कि बर्मा मुस्लमान कितनी दूर रहते हैं| जिस तरह से भारतीय गावों के ढाँचे के अनुसार दलित लोग गाँव के बाहरी हिस्से में रहते हैं उसी प्रकार बर्मा से आए हुए ये मुसलमान इस बस्ती के एकदम अंत में रहते हैं| हम बस्ती के आखिरी रास्ते पर पहुँच चुके थे| इसके आगे एक मामूली सा दलदली इलाका था| कुछ झाड़-झंखाड़ भी थे| उसी दलदल से लग कर आदमी को कमर तक ढँक लेने वाली दो-चार लेट्रीने बनी हुई थीं| शायद बस्ती का सारा मलदान उसी जगह पर होता था| हमने देखा कि रास्ता बस्ती से ऊँचा था|
          “बस्ती रास्ते से कितनी नीचे है?”, मैंने अपने साथी से आश्चर्यचकित होकर पूछा| एकपरिवार के व्यस्क व्यक्ति को देखकर मैंने पूछा, “आप रोहिंग्या हैं क्या?”
          “नहीं”, उसने पलटकर जवाब दिया| आगे बताते हुए उसने कहा, “आप यहाँ से नीचे उतर जाओ तो उनके कुछ परिवार मिल जाएंगे|”
आप कहाँ से हैं?”, मैंने पूछा| 
हम असम से हैं|”
यहाँ कब और क्यूँ आना पड़ा?”
हम यहाँ 2012 में आए थे| कोकराझार के दंगों में जान बचाकर भाग आये थे|”
ओह! माफ़ करना|”, इतना कहकर हम आगे निकल गए|
हम रास्ते से नीचे उतरे तो हमने देखा कि रास्ता लगभग हमारे सर के ऊपर तक पहुँच गया था| मैं सोच में पड़ गया कि बरसात का पानी कहाँ जाता होगा?
एक आदमी को देखकर हम रुक गये क्या नाम है आपका?”, मैंने पुछा|
रफीक अहमद”, उसने बताया|
कहाँ से हैं आप?”, हमने पूछा
--हम लोग बर्मा से हैं|
--कब आये?
--2012 में|
--कौन-कौन आया था|
--मैं अकेला ही आया था|
--परिवार के बाकी लोग कहाँ हैं?
--शादी से पहले का परिवार नहीं पता कहाँ हैं| यहीं आकर शादी किया
यह बड़े आश्चर्य की बात है कि इन लोगों ने अपनी ज़रूरत के लायक हिंदी बोलनी सीख ली थी| जब हमने किसी और से भी बात करने का आग्रह किया तो उन्होंने हमें उनके आफिस जाने का सुझाव दिया| रफीक से पूछने पर उसने बताया कि बर्मा में मुसलमानों को मारा जा रहा है इसलिए वे यहाँ चले आये| हालाकिं उन्हें नहीं पता कि उन्हें सिर्फ इसलिए क्यूँ मारा जा रहा है कि वे मुसलमान हैं| उनके पढ़े लिखे लोगों तथा नेताओं को पहले ही ले जाकर गायब कर दिया जाता था| उनकी ओर से कोई नहीं है अब जो बोल सके| यह पूछने पर कि म्यामां नेता आंग सां सू की उनकी मदद कर रही है कि नहीं तो रफीक ने बताया कि सू की सेना की मददगार है और इस क़त्ले आम को रोकने के लिए कोई कदम नहीं उठा रही हैं| मार्च 2016 में म्यामन में लोकतान्त्रिक सर्कार गठित हुई तो सू ची ने सेना के साथ सत्ता को साझा करने की बात कही थी, जिसका अर्थ यह था की सुरक्षा से जुड़े सभी मंत्रालयों पर सेना का नियन्त्रण होगा, अर्थात म्यामा की सेना के जनरल गृह, सीमा और रक्षा मामलों से जुड़े मंत्रालयों की बागडोर सभालेंगे| इससे स्पष्ट है की म्यामां में सेना अप्रत्यक्ष रूप से सत्ता में भागीदार बनी हुई है|[i] हालांकि आंग सां सू की ने कहा कि सफाए का कोई अभियान नहीं चलाया गया है|[ii]
हम सब आगे बढ़े तो देखा कुछ बच्चे खेल रहे थे| हमने पूछा कि यहाँ किसके साथ आये हो तो उसने बताया कि वो अपनी माँ के साथ दो साल पहले लाया था| लेकिन उसको नहीं पता कि उसका बाप कहाँ है| एक माँ अपने शौहर के बिना, अपने बिन बाप के बच्चे को एक गैर मुल्क लेकर तभी आ सकती है जब सुहागन होने से जिंदा होना ज्यादा ज़रूरी हो जाये| हमने एक-दो झुग्गियों में झाँक कर देखा तो पता चला कि चार गुणा चार की झुग्गी है और उसी अँधेरी बदबूदार कोठरी में ये जीने मरने पर मजबूर हैं| इस बस्ती में रहने वाले भारतीयों और इन बर्मी लोगों में यही समानता है कि इन दोनों देशों के नागरिकों के पलायन का कारण नस्लीय हिंसा है| फर्क सिर्फ इतना है कि भारतीय मूल के लोगों ने अपने राज्यों की सरहदें लांघी हैं फिर भी अपने देश की ज़मीन पर है, अपनी मिट्टी के साथ जुड़े हुए हैं| उन्हें कोई गैर-मुल्की या शरणार्थी नहीं कहेगा| जबकि रोहिंग्या अपने देश और मिट्टी से दूर दो देशों की सरहदें लांघ कर आए हैं| हालाँकि उनकी इस देश में भी रहना दुश्वार है| हाल ही में सुप्रीम कोर्ट में गृह मंत्रालय में जारी हलफनामे पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा, “गैर कानूनी तरीके से भारत आये म्यामां के रोहिंग्या समुदाय के लोगों को वापस भेजने के मामले में सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपना पक्ष रख दिया है और अब इस मामले में अदालत के फैसले का इंतज़ार है|”[iii] 
यहाँ कोई किसी से आसानी से बात करने को तैयार नहीं हैं| सिवाय रफीक के हर किसी ने हमें कार्यालय की ओर जाने का इशारा कर दिया| आफिस या कार्यालय कहने से हमरे दिमाग में जो छवि बनती है वह टूटनी तय थी| हमने देखा कि जिसे ये लोग अपना कार्यालय कहते हैं वह सिर्फ बांस से बनायीं हुई एक और झोंपड़ी है जिसमे दो-चार स्टूडेंट चेयर और एक लकड़ी की मेज़ पड़ी थी| इस कार्यालय में हम मोहम्मद सिराजुल्लाह से मिले| सिराजुल्लाह एक 22-23 साल का पढ़ा-लिखा नौजवान है| औपचारिक परिचय के बाद मैंने पूछा, “आप यहाँ किसके साथ आये थे?” 
मैं अकेला ही आया था|”, सिराज ने बताया। 
सिराज से बात कर के पता चला कि जितने भी लोग यहाँ रह रहे हैं उन्हें पता ही नहीं है कि उनके परिवार के बाकी सदस्य कहाँ हैं और किस हालत में हैं| ज़्यादातर परिवार यहाँ वर्ष 2012 में बांग्लादेश की सरहद पार कर के भारत की सीमा में आये| यहाँ भी ये लोग बहुत अच्छी हालत में नहीं हैं| “यहां कोई आपकी तरह किसी से बात करने को तैयार क्यों नहीं है?”, मैंने अपनी जिज्ञासा सिराज के सामने राखी|
उसके बाद जो उसने मुझे बताया वो होश उडा देने वाला था, “हमारे दो अपंग साथियों को बहला फुसला कर उनकी फोटो लेकर अखबार में यह लिखकर छाप दी थी कि इन आतंकवादियों को भारत सरकार को तलाश है|” क्या हमारे बीच किसी भी पेशे में कोई भी नैतिकता बाकी बची हुई है? इस घटना के कौन किस पर भरोसा कर सकता है? जिस जगह ये अपनी जान बचने के लिए शरण ले रहे हैं अगर वहीँ पर इस तरह के षड्यंत्र रचे जाएंगे तो इससे बेहतर है कि ये लोग अपने देश में ही मारे जायें| कम अज कम परायी धरती पर मरने का बोझ तो सीने पर लेकर नहीं मरना पड़ेगा|
आप लोगों को यहाँ कोई तकलीफ तो नहीं हैं? कोई आपको यहाँ तंग तो नहीं करता है?”, मैंने जानना चाहा|
नहीं, हम यहाँ रहने का किराया देते हैं| बिजली का बिल भी देते हैं|”, सिराजुल्लाह ने जवाब दिया|
किराया?”, मैंने हैरत से पूछा, “किसको देते हो किराया?”
ज़मीन के मालिक को”, उसने जवाब दिया|
इस ज़मीन का भी कोई मालिक है? मैंने हैरत से मन में सोचा की बेकार पड़ी ज़मीन जिस पर कुछ पैदा नहीं किया जा सकता| ऐसी लोकेशन जहाँ कुछ बनाया जाये तो टिके भी न| उस ज़मीन का भी कोई मालिक हो सकता है और कोई इस हद तक मुनीम-दिमाग हो सकता है कि इन मजबूर आत्माओं से भी उगाही कर सकता है|
गुज़ारा करने के लिए ये लोग आस पास के इलाके में मजदूरी करते हैं| कुछ लोग ऑटो भी चला लेते हैं जिससे उनका कुछ खर्च चल जाता है|”, सिराज ने बताया| उसकी बात सुनकर लगा जैसे ज़िन्दगी जीने की ललक आदमी से किसी भी देश और अवस्था में काम करवा ही लेती है। 
राजनैतिक उथल-पुथल और भारत में रोहिन्ग्या मुसलमानों के डेरे पर गृह मंत्रालय के विचारों को साझा करते हुए हमने पूछा  “आपको भारत से क्या चाहिए?”
हमें कुछ नहीं चाहिएहम यहाँ किसी का हक लेने नहीं आये हैं| हम यहाँ तभी तक रहना चाहते हैं जब तक कि हमारे मुल्क में अमन नहीं कायम नहीं हो जाता है| जिस दिन मेरे मुल्क में अमन कायम हो जायेगा उस दिन मुझे दूसरा सेकंड नहीं लगेगा अपने मुल्क वापस लौटने का फैसला लेने के लिए|”, सिराज ने अपना पक्ष स्पष्ट किया|
उसने बताया कि यहाँ हर आदमी यही दुआ करता है कि जब वो मरे तो अपने वतन की मिट्टी में ही दफ़न किया जाए| इस दुनिया में बेवतन होने से बड़ी कोई सजा नहीं है| दूसरे मुल्क में आज़ाद फिज़ाएं भी परायी लगती हैं| हवाएं भी सलाखों सी चुभती हैं और अपने मुल्क लौटने की टीस जिंदा लोगों को भी मुर्दा बना देती हैं|
म्यांमार की सैन्य सरकार ने 1982 के नागरिकता कानून के अंतर्गत रोहिंग्या को अपने नागरिक माना ही नहीं| फिर इनके सारे नागरिक अधिकार छीन लिए गए| इन लोगों के शिक्षा हासिल करने, यात्रा करने, अपने धर्म का अनुसरण करने और स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ उठाने पर लगातार पाबंदी लगायी गयी है| इससे ये लोग बंधुआ मज़दूरों की भान्ति जीवन जीने को विवश हैं|[iv] इस विषय पर बात करते हुए सिराज ने कहा, “मैं यहाँ आकर समझा कि आज़ादी क्या चीज़ होती है| मैं अपने देश में भी इसी प्रकार से आज़ाद रहकर जीना चाहता हूँ|”
 अपने मुल्क वापस लौटने की आस लिए ये बर्मी मुसलमान भारत में शरणार्थियों का जीवन जी रहे हैं जबकि सिराज जैसे अनेक रोहिंग्या मुसलमान अपने मुल्क में बहुत बड़ी संपत्ति के मालिक हैं| परन्तु नागरिक अधिकार न होने के कारण और नस्लीय हिंसा ने उन्हें जानवरों जैसा जीवन व्यतीत करने पर मजबूर कर दिया है| जिस तरह सरहदें लांघकर कर शरीर और मन पर अनगिनत घाव लिए वे अपने मुल्क से भारत आये थे उसी तरह के घाव वे अपने पीढ़ियों को नहीं देना चाहते हैं| इसी प्रयास में रोहिंग्या मुसलमानों ने यहाँ अपना खुद का एक स्कूल खोला है जिसे गुंचानाम की एक गैर सरकारी संस्था चलाने में मदद करती है|
इस दुनिया में सभी को जीने का अधिकार है| यह अधिकार कोई किसी से छीन सकता है| इस अधिकार में बाधा डालने वाले न केवल किसी एक इन्सान के अपराधी होते हैं बल्कि समूची मानवता के अपराधी होते हैं| रोहिंग्या मुसलमानों के साथ होने वाला नरसंहार मानवता को शर्मसार करने वाली घटना है| ऐसी घटनाओं को मुंहतोड़ जवाब देने का एक ही रास्ता है और वो है इंसानियत के रास्ते पर चलकर ऐसे लाचार पीड़ितों को सहारा देना न कि क़ानूनी जुगाली करना| इंसानियत से बड़ा कोई धर्म नहीं इसलिए सब कुछ छोड़कर बची-खुची इंसानियत को बचाना हमारा परम कर्त्तव्य है|


सन्दर्भ


[i] अनीता वर्मा, अपने ही आँगन में पराए, जनसत्ता, नई दिल्ली, 13 सितम्बर 2017, प्रष्ठ संख्या 6
[ii] जनसत्ता ब्यूरो जनसत्ता, नई दिल्ली, 19 सितम्बर 2017, पृष्ठ संख्या 1 और 8
[iii] जनसत्ता ब्यूरो, जनसत्ता, नई दिल्ली, 19 सितम्बर 2017, पृष्ठ संख्या 1
[iv]अनीता वर्मा, अपने ही आँगन में पराए, जनसत्ता, नई दिल्ली, 13 सितम्बर 2017, पृष्ठ संख्या 6